Texts

Miraji, Poe, and Po

झील

A Devanagari transliteration of Miraji’s Urdu translation of the poem “The Lake” by American poet Edgar Allan Poe (1809–1849). The Urdu text is available on Rekhta (pp. 1013–1014 in the e-reader’s numbering).

जब आई बहार जवानी की, (मन-मोहन मीठी कहानी की)
इस फैली-फैली दुनिया का, इक कोना मैंने ढूँढ लिया
इस कोने से जो रग़बत थी, वैसी न किसी से चाहत थी
हर ज़र्रा दिल को लुभाता था, और आँखों को गरमाता था
इक झील थी बन में खोई हुई, और गहरी नींद में सोई हुई
उस झील के सूने किनारों को, कुछ काली चट्टानों ने घेरा था
और साथ सनोबर के लंबे-ऊँचे पेड़ों का डेरा था
लेकिन जब रात आ जाती थी, और दुनिया पर छा जाती थी
बेचैन हवाएँ चलती थी, और उनसे चीख़ें निकलती थी
वो गर ये था, वो नग़मा था, वो नग़मा भी इक नौहा1 था
मैं इस नौहे को सुनता था, और पहरों ही सिर धुनता था
उन रोते-रोते नग़मों में, उन चीख़ों वाले लम्हों में
पल-भर जादू मिट जाता था, और ध्यान मुझे ये आता था
ये कैसी वहशत छाई है, तन्हाई है, तन्हाई है!
एहसास मगर नागुफ़्ता2 था, ज़ाहिर था फिर भी निहुफ़्ता3 था
हीरों की कान4 मिले मुझको, या सारा जहान मिले मुझको
मैं झील कहानी कैसे कहूँ? बहतर है यही ख़ामोश रहूँ
वो सब लहरें थीं ज़हर-भरी, उन लहरों में थी मौत छुपी
जो गहराई में बिछौना था, इक ऐसी क़ब्र का कोना था
जिसमें उस शख़्स को राहत हो, (और ज़ेहन-ए-रसा5 को मसर्रत हो)
जो बिधके6 उस गहराई को, अपने दिल की तन्हाई को
उसके ज़र्रों में समो डाले, पहले मंज़र को धो डाले
वो धुंधली झील सँवर जाए, और बाग़ अदन7 का निखर आए।

चाँद, मैं, और मेरा साया

A Devanagari transliteration of Miraji’s Urdu translation of the poem “Drinking Alone Under the Moon” (月下獨酌) by Chinese poet Li Po (李白, 701–762 CE). The Urdu text is available on Rekhta (pp. 907–908 in the e-reader’s numbering), and an English translation by Arthur Waley is on Wikisource. I don’t think Miraji read Chinese himself. His Urdu translation was probably mediated through an English translation, but I don’t know if it was Waley’s.

खिले हैं फूल पेड़ों पर,
मैं उनके पास बैठा हूँ,
लिए मीना को पहलू में।
अकेले बादा-नोशी8 कर रहा हूँ मैं।
कहाँ है मेरे साथी, हाँ, कहाँ हैं सब मिरे साथी?
वो लो, महताब मुझको दिखता है आसमानों से
दरख़शानी को इसकी देखकर मैंने हाथ में साग़र!
पुकार उठा!
ये देखो, आगे आगे मेरे लरज़ाँ है मिरा साया!
नहीं, हम तीन हैं, हम तीन हैं, तन्हा नहीं हूँ मैं!
अगरचे माह-ए-रख़शाँ9 बादा-नोशी कर नहीं सकता।
मिरे हर तरफ़ साया भी मिरा बस रक़्स करता है,
मगर हम आज सब साथी हैं, तीनों-तीनों साथी हैं!
प्राणी, माह-ए-रख़शाँ, और मिरा साया!
मैं गाता हूँ, मय-वहशी10 फ़िज़ाओं में ख़िरामाँ11 है
मैं रक़्साँ12 हूँ, मिरा साया भी हर-सू13 लड़खड़ाता है
अभी बेदार हैं हम, आओ महव14-ए-ऐश हो जाएँ।
बस इक मीठी-सी मदहोशी में ही इस दरजा क़ुव्वत है
कि वो हमको जुदा कर दे!
चलो हम आज इक इस क़िस्म का अहद-ए-वफ़ा बाँधें
कि ये इंसान जो फ़ानी हैं, इसको जान सकते ही नहीं हरगिज़!
हम अकसर इस जगह आकर मिलेंगे शाम के नम-दार15 लम्हों में,
खुली, फैली हुई, भीगी हुई, रंगीं फ़िज़ाओं में!

रुपैया
رُپیّا

A song a liberated woman’s reaction to a dowry demand, first performed in 2012 in season 1, episode 3 of Amir Khan’s talk show Satyamev Jayate. Listen on YouTube.

Lyrics: Swanand Kirkire
Composer: Ram Sampath
Singer: Sona Mohapatra

बाबुल16 प्यारे, सजन17 सखा18 रे
सुन ओ मेरी मैया
बोझ नहीं मैं किसी के सर का
न मझदार में नैया

पतवार19 बनूँगी, लहरों से लड़ूँगी!
अरे मुझे क्या बेचेगा रुपैया!
हो… अरे मुझे क्या बेचेगा रुपैया!

कल बाबा की ऊँगली को थामी चली थी
कल बाबा की लाठी भी बन जाऊँगी
अम्मा तेरे घरौंदे20 की चिड़िया हूँ मैं
दाना लेकर ही वापस घर आऊँगी

जिसकी फ़ितरत में ग़ैरत21 समाई नहीं
जिसको दौलत से ज़्यादा मैं भाई नहीं
ऐसे साजन की मुझको ज़रूरत नहीं
न कहने का सुन लो मुहूरत यही

अकेली चलूँगी, क़िस्मत से मिलूँगी!
अरे मुझे क्या बेचेगा रुपैया!
हो… अरे मुझे क्या बेचेगा रुपैया!

दिल से दिल के तार तो जुड़े नहीं
तो रस्मों पे दौलत ये काहे बहें
हम तो प्यार की ख़्वाहिश में रिश्ते बुनें
तो रिश्तों में लालच हम काहे सहें

क्या शादी के आगे ज़िंदगी ही नहीं
जो शादी हिसाबों की केवल है बही22
ऐसी शादी की मुझको ज़रूरत नहीं
न कहने का सुन लो मुहूरत यही

सुबह सी खिलूँगी, रतिया सी भरूँगी!
अरे मुझे क्या बेचेगा रुपैया!
हो… अरे मुझे क्या बेचेगा रुपैया!

بابُل23 پیارے، سجن24 سکھا25 رے
سُن او میری میّا
بوجھ نہیں میں کسی کے سر کا
نہ مجھدھار میں نیّا

پتوار26 بنُں گی، لہروں سے لڑوں گی!
ارے مجھے کیا بیچے گا رُپیّا!
ہو… ارے مجھے کیا بیچے گا رُپیّا!

کل بابا کی اُنگلی کو تھامی چلی تھی
کل بابا کی لاٹھی بھی بن جاؤں گی
امّا تیرے گھروندے27 کی چِڑیا ہوں میں
دانہ لے کر ہی واپس گھر آؤں گی

جس کی فِطرت میں غیرت28 سمائی نہیں
جس کو دولت سے زیادہ میں بھائی نہیں
ایسے ساجن کی مجھ کو ضرورت نہیں
نہ کہنے کا سُن لو مُہورت یہی

اکیلی چلوں گی، قسمت سے ملوں گی!
ارے مجھے کیا بیچے گا رُپیّا!
ہو… ارے مجھے کیا بیچے گا رُپیّا!

دل سے دل کے تار تو جڑے نہیں
تو رسموں پہ دولت یہ کاہے بہیں
ہم تو پیار کی خواہش میں رشتے بُنیں
تو رشتوں میں لالچ ہم کاہے سہیں

کیا شادی سے آگے زندگی ہی نہیں
جو شادی حِسابوں کی کیوَل بہی29
اَیسی شادی کی مجھ کو ضرورت نہیں
نہ کہنے کا سُن لو مُہورت یہی

صُبح سی کھلوں گی، رتیا سی بھروں گی!
ارے مجھے کیا بیچے گا رُپیّا!
ہو… ارے مجھے کیا بیچے گا رُپیّا!

जहाँ ज़ेहनों में बेख़ौफ़ी

A Devanagari transliteration of Anwar Jalalpuri’s Urdu rendition of Rabindranath Tagore’s Where the mind is without fear. The Urdu text is available on Rekhta (p. 63 in the e-reader’s numbering).

जहाँ ज़ेहनों30 में बेख़ौफ़ी31 हो, सर ऊँचा रहे सब का
जहाँ ऊँचा दिख़ाई दे हमेशा इल्म का झंडा

फ़सील32-ए-तंग-ज़रफ़ी33 जिस जगह उठने नहीं पाए
जहाँ लफ़्ज़ों की सच्चाई का सर झुकने नहीं पाए

जहाँ संघर्ष34 वाला शख़्स ही बाज़ू को फैलाए
जहाँ तकमील35 की ख़्वाहिश लिए हर आदमी आए

जहाँ पर अक़्ल का शफ़्फ़ाफ़36 सरचश्मा37 रहे जारी
किसी को आदत-ए-मुरदा38 की जिस जा हो न बीमारी

पिता मेरे, मिरे मालिक, इसी माहौल-ए-रहमत39 में
वतन आज़ाद हो जाए, लगे हम सब हीं जन्नत40 में

सुनो ब्राह्मण
سُنو براہمن

A poem by Malkhān Singh. The original can be found on Hindwī, and an English translation by Pratīk Kanjīlāl is available here.

(1)
हमारी दासताँ का सफ़र
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसका अंत भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा।

(2)
सुनो ब्राह्मण
हमारे पसीने से
बू आती है तुम्हें।

फिर ऐसा करो
एक दिन
अपनी जनानी41 को
हमारी जनानी के साथ
मैला कमाने भेजो।

तुम! मेरे साथ आओ
चमड़ा पकाएँगे
दोनों मिल बैठ कर।

मेरे बेटे के साथ
अपने बेटे को भेजो
दिहाड़ी की खोज में।

और अपनी बिटिया को
हमारी बिटिया के साथ
भेजो कटाई करने
मुखिया के खेत में।

शाम को थक कर
पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटे को
बेटी को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध42 को,
बलवती43 होती है जो
देह44 की गंध से।

(3)
हम जानते हैं
हमारा सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें।

हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं।

सुनो भूदेव45
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय46 के नाम पर
जीवन को चौखटों47 में कस
कसाई बाड़ा48 बना दिया था।
और खुद को शीर्ष49 पर
स्थापित50 करने हेतु51
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंज़िला ज़ीने से।
वहीं बीच आँगन में
स्वर्ग के—नरक के
ऊँच के—नीच के
छूत के—अछूत के
भूत के भभूत52 के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध53
और गुण-धर्म54 के
सियासी प्रपंच55 गढ़56
रेवड़57 बना दिया था
पूरे देश को।

तुम अक्सर कहा करते हो
कि आत्मा कुँआ है
जुड़ी है जो मूल से
फिर निश्चय58 ही हमारी घृणा59
चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल60-सी।
यदि नहीं…
तो सुनो वशिष्ठ61!
द्रोणाचार्य62 तुम भी सुनो!
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत63
तुम्हारी आस्थाओं64 पर थूकते हैं।

मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारा बोझ ढोने को
बिलकुल तैयार नहीं हैं।

देखो!
बंद क़िले से बाहर
झाँक कर तो देखो
बरफ़ पिघल रही है।
बछेड़े65 मार रहे हैं फ़ुर्री66
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य67
पुराने ज़ंग68 लगे तीरों को
आग में तपा रहा है।

(1)
ہماری داستاں کا سفر
تُمھارے جنم سے شُروع ہوتا ہے
اور اِس کا انت بھی
تُمھارے انت کے ساتھ ہو گا۔

(2)
سُنو براہمن
ہمارے پسینے سے
بُو آتی ہے تمھیں۔

پھِر ایسا کرو
ایک دِن
اپنی جنانی69 کو
ہماری جنانی کے ساتھ
میلا کمانے بھیجو۔

تُم! میرے ساتھ آؤ
چمڑا پکائیں گے
دونوں مِل بیٹھ کر۔

میرے بیٹے کے ساتھ
اپنے بیٹے کو بھیجو
دِہاڑی کی کھوج میں۔

اور اپنی بِٹِیا کو
ہماری بِٹِیا کے ساتھ
بھیجو کٹائی کرنے
مُکھِیا کے کھیت میں۔

شام کو تھک کر
پسر جاؤ دھرتی پر
سُونگھو خود کو
بیٹے کو
بیٹی کو
تبھی جان پاؤ گے تُم
جِیوَن کی گندھ70 کو
بَل وَتی71 ہوتی ہے جو
دیہ72 کی گندھ سے۔

(3)
ہم جانتے ہیں
ہمارا سب کُچھ
بھَونڈا لگتا ہے تمھیں۔

ہماری بغل میں کھڑا ہونے پر
قد گھٹا ہے تمھارا
اور برابر کھڑا دیکھ
بھَویں تن جاتی ہیں۔

سُنو بھو دیو
تُمھارا قد
اُسی دِن گھٹ گیا تھا
جِس دِن کہ تم نے
نِیائے کے نام پر
جِیوَن کو چوکھٹوں میں کس
کسائی باڑا73 بنا دیا تھا۔
اور خود کو شیرش پر
ستھاپِت کرنے ہیتو
تالے ٹھُکوا دئے تھے
چَو منزلہ زینے سے۔
وہیں بیچ آنگن میں
سورگ کے—نرک کے
اونچ کے—نیچ کے
چھوت کے—اچھوت کے
بھوت کے بھَبھُوت74 کے
منتر کے تنتر کے
بے پیندی کے برہم کے
کُتِیا، آتما، پراربدھ75
اور گُن دھرم76 کے
سیاسی پرَپنچ77 گرھ78
ریوڑ79 بنا دیا تھا
پورے دیش کو۔

تُم اکثر کہا کرتے ہو
کہ آتما کُنواں ہے
جُڑی ہے جو مُول سے
پھر نِشچے80 ہی ہماری گھرِنا81
چُبھتی ہو گی تُمھیں
پکے ہوئے شُول سی۔
یَدی نہیں—
تو سُنو وَشِشٹھ82!
درون آچاریہ83 تُم بھی سُنو!
ہم تُم سے گھرِنا کرتے ہیں
تُمھارے اتیت84
تُمھاری آستھاؤں85 پر تھُوکتے ہیں۔

مت بھُولو کہ اب
محنت کش کندھے
تمھارا بوچھ دھونے کو
بالکل تیار نہیں ہیں۔

دیکھو!
بند قلے سے باہر
جھانک کر تو دیکھو
برف پِگھل رہی ہے۔
بچھیڑے86 مار رہے ہیں فُرّی87
بَیل دھوپ چبا رہے ہیں
اوے ایکلَوْیہ88
پُرانے زنگ89 لگے تیروں کو
آگ میں تپا رہا ہے۔

क्रांतिकारी जयभीम
کرانتی کاری جئے بھیم

A poem by Anitā Bhārtī. The original can be found on Kavitākosh. There are a few minor changes here from Kavitākosh’s transcription. For example, Kavitākosh’s transcription of the poem contains a reference to the year 1925, but the poem makes significantly more sense if this were 1927 instead (when Ambeḍkar launched the Mahāṛ Satyāgrah and many of the incidents described in the poem happened), so I’ve changed the date below. If I had to guess, I suspect that someone mistook ७ for ५ when transcribing. I will try to get my hands on a paper copy of the poem at some point to confirm what the original says.

प्रिय मित्र,
क्रांतिकारी90 जयभीम91!

जब तुम उदास होते हो
तो सारी सृष्टि92 में उदासी भर जाती है
थके आंदोलन-सी आँखें
नारे लगाने की विवशता93
ज़ोर-ज़ोर से गीत गाने की रिवायत94
नहीं तोड़ पाती तुम्हारी खामोशी

मुझे याद है —
1927 का वह दिन
जब तुम्हारे चेहरे पर
अनोखी रौनक थी
संघर्ष से चमकता तुम्हारा
वो दिव्य95 रूप

सोने-चांदी से मृदभांड96
उतर पड़े थे तालाब में यकायक
आसमान ताली बजा रहा था
सितारे फूल बरसा रहे थे
यूँ तो मटके पकते हैं आग में
पर उस दिन पके थे चवदार तालाब में

आई थी एक क्रांति
तुम्हारी बहनें उतार रही थीं
हाथों, पैरों और गले से
गुलामी के निशान

और तुम दहाड़ रहे थे
जैसे कोई बरसों से सोया शेर
क्रूर97 शिकारी को देखकर दहाड़े

मुझे याद है — आज भी वह दिन
जब चारों तरफ़ जोश था
और उधर
एक जानवराना क्रोध98 था

तुम बढ़ रहे थे क्रांतिधर्मा99
सैकड़ों क्रांतिधर्माओं के साथ
उस ईश्वर के द्वार100
जिसे कहा जाता है सर्वव्यापी101
पर था एक मंदिर में छुपा
उन्होंने रोका, बरसाए डंडे
पर तुम कब रुके?
तुम आग उगल रहे थे
उस आग में जल रहे थे
पुरातनपंथी102 क्रूर ईश्वरीकृत103 कानून

हम गढ़ेंगे अपना इतिहास104
की थी उस दिन घोषणा105 तुमने
दौड़ गई थी शिराओं106 में बिजली
उस दिन
जो अभी तक दौड़ रही है
हमारी नसों में, हमारे दिमाग में
और हमारे विचारों में

پرِیہ مِتر،
کرانتی کاری107 جئے بھیم108!

جب تُم اُداس ہوتے ہو
تو ساری سرِشٹی109 میں اُداسی بھر جاتی ہے
تھکے آندولن سی آنکھیں
نارے لگانے کی وِوَشتا110
زور زور سے گیت گانے کی رِوایت111
نہیں توڑ پاتی تمھاری خاموشی

مُجھے یاد ہے —
1927 کا وہ دن
جب تُمھارے چِہرے پر
انوکھی رَونق تھی
سنگھرش سے چمکتا تُمھارا
وہ دِویہ112 رُوپ

سونے چاندی سے مرِتبھانڈ113
اُتر پڑے تھے تالاب میں یکایک
آسمان تالی بجا رہا تھا
سِتارے پھُول برسا رہے تھے
یوں تو مٹکے پکتے ہیں آگ میں
پر اُس دِن پکے تھے چودار تالاب میں

آئی تھی ایک کرانتی
تُمھاری بہنیں اُتار رہی تھیں
ہاتھوں، پَیروں، اور گلے سے
غُلامی کے نِشان

اور تُم دہاڑ رہے تھے
جیسے کوئی برسوں سے سویا شیر
کرور114 شِکاری کو دیکھ کر دہاڑے

مُجھے یاد ہے— آج بھی وہ دن
جب چاروں طرف جوش تھا
اور اُدھر
ایک جانورانا کرودھ115 تھا

تُم بڑھ رہے تھے کرانتی دھرما116
سیکڑوں کرانتی دھرماؤں کے ساتھ
اُس اِیشور کے دْوار117
جِسے کہا جاتا ہے سروہ ویاپی118
پر تھا ایک مندر میں چھُپا
اُنھوں نے روکا، برسائے ڈنڈے
پر تُم کب رُکے؟
تُم آگ اُگل رہے تھے
اُس آگ میں جل رہے تھے
پُراتن پنتھی119 کرور اِیشورِیکرِت120 قانون

ہم گڑھیں گے اپنا اِتِہاس121
کی تھی اُس دِن گھوشنا122 تُم نے
دَوڑ گئی تھی شِراؤں123 میں بِجلی
اُس دن
جو ابھی تک دَوڑ رہا ہے
ہماری نسوں میں، ہمارے دِماغ میں
اور ہمارے وِچاروں میں

मैं तुम लोगों से दूर हूँ
میں تُم لوگوں سے دور ہوں

A poem by Muktibodh. The original can be found on Kavitākosh.

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं124 से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न125 है
कि जो तुम्हारे लिए विष126 है, मेरे लिए अन्न127 है

मेरी असंग128 स्थिति में चलता-फिरता साथ है
अकेले में साहचर्य129 का हाथ है
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित130 हैं,
किंतु वो मेरी व्याकुल131 आत्मा में बिंबित132 हैं,
पुरस्कृत133 हैं
इसीलिए तुम्हारा मुझ पर सतत134 आघात135 है!!
सबके सामने और अकेले में।
(मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों136 के पन्ने उड़ते हैं
तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में)

असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वो चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
छल-छद्म137 धन की
किंतु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।
फिर भी मैं अपनी सार्थकता138 से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न139 हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए
वो मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते140 कि आदमी खरा141 हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।
रिफ़्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
गतियों142 की दुनिया में
मेरी वो भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों143 में
पेटों की आँतों144 में न्यूनों145 की पीड़ा146 है
छाती के कोषों147 में रहितों148 की व्रीड़ा149 है

शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य150 है
शेष151 सब अवास्तव152 अयथार्थ153 मिथ्या154 है भ्रम155 है
सत्य केवल एक जो कि
दुःखों का क्रम156 है

मैं कनफटा[^kanphataa] हूँ हेठा157 हूँ
शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया लिबास158 में पुरज़े सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ159 ढोता हूँ।

میں تُم لوگوں سے اِتنا دور ہوں
تُمھاری پریرناؤں160 سے میری پریرنا اِتنی بھِنّ161 ہے
کہ جو تُمھارے لیے وِش162 ہے، میرے لیے اَنّ163 ہے

میری اَسنگ164 ستھِتی میں چلتا پھِرتا ساتھ ہے
اکیلے میں ساہچریہ165 کا ہاتھ ہے
اُن کا جو تُمھارے دوارا گرہِت166 ہیں،
کِنتو وہ میری وِیاکُل167 آتما میں بِمبِت168 ہیں،
پُرسکرِت169 ہیں
اسی لیے تُمھارا مُجھ پر ستت170 آگھات171 ہے!!
سب کے سامنے اور اکیلے میں۔
(میرے رکت بھرے مہاکاوْیوں172 کے پنّے اُڑتے ہیں
تُمھارے ہمارے اِس سارے جھمیلے میں)

اَسپھلتا کا دھول کچرا اوڑھے ہوں
اِس لیے کہ وہ چکّر دار زینوں پر مِلتی ہے
چھل چھدم173 دھن کی
کِنتو میں سیدھی سادی پٹری پٹری دوڑا ہوں
جیون کی۔
پھِر بھی میں اپنی سارتھکتا174 سے کھِنّ ہوں
وِش سے اَپرَسنّ175 ہوں
اِس لیے کہ جو ہے اُس سے بہتر چاہیے
پوری دُنیا صاف کرنے کے لیے مہتر چاہیے
وہ مہتر میں ہو نہیں پاتا
پر روز کوئی بھیتر چِلّاتا ہے
کہ کوئی کام بُرا نہیں
بشرطے176 کہ آدمی کھرا177 ہو
پھِر بھی میں اُس اور اپنے کو ڈھو نہیں پاتا
رِفرِجریٹروں، وِٹیمنوں، ریدیوگراموں کے باہر کی
گتیوں178 کی دُنیا میں
میری وہ بھوکی بچّی مُنیا ہے شونیوں179 میں
پیٹوں کی آنتوں180 میں نیونوں181 کی پیڑا ہے
چھاتی کے کوشوں182 میں رہیتوں183 کی وْرِیڑا184 ہے

شونیوں سے گھِری ہوئی پیڑا ہی ستیہ185 ہے
شیش186 سب اَواستَو187 اَیَتھارتھ188 مِتھیا189 ہے، بھرَم190 ہے
ستیہ کیوَل ایک جو کہ
دُکھوں کا کرَم191 ہے

میں کن پھٹا192 ہوں ہیتھا193 ہوں
شیوْرولیٹ ڈَوج کے نیچے میں لیٹا ہوں
تیلیا لباس194 میں پُرزے سُدھارتا ہوں
تُمھاری آگیائیں195 ڈھوتا ہوں۔

सर-ए-तूर196

A poem by Alī Sardār Jāfri, published in the collection Ek Khwāb Aur (1965). Note that the collection was published in the 1960s, when many milestones in spaceflight were being set. For example, Yuri Gagarin became the first human being in space in 1961.

(आसमाँ-परवाज़ों197 के नाम)

“क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक-सा जवाब
आओ ना, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर198 की”
—ग़ालिब

दिल को बेताब रखती है इक आरज़ू
कम है ये वुसअत199-ए-आलम-ए-रंग-ओ-बू
ले चली है किधर फिर नई जुस्तजू
ता बा-हद्द-ए-नज़र200 उड़के जाते हैं हम
वो जो हायल201 थे राहों में शम्स202-ओ-क़मर203
हमसफ़र उनको अपना बनाते हैं हम

है ज़मीं परदा-ए-लाला204-ओ-नस्तरन205
आसमाँ परदा-ए-कहकशाँ है अभी
राज़-ए-फ़ितरत हुआ लाख हम पर अयाँ206
राज़-ए-फ़ितरत निहाँ207 का निहाँ है अभी
जिसकी सदियों उधर हमने की इब्तिदा208
नातमाम209 अपनी वो दास्ताँ है अभी
मंज़िलें उड़ गईं बनके गर्द-ए-सफ़र
रहगुज़ारों210 ही में कारवाँ है अभी
पीके नाकामियों की शराब-ए-कोहन211
अपना ज़ौक़212-ए-तजस्सुस213 जवाँ है अभी

हाथ काटे गए जुरअत214-ए-शौक़ पर
ख़ूँ-चकाँ215 होके वो गुल-फ़िशाँ216 हो गए
हैरतों ने लगाई जो मोहर-ए-सुकूत217
लब ख़ामोशी में जादू-बयाँ218 हो गए
रासते में जो कोहसार219 आए तो हम
ऐसे तड़पे कि सैल-ए-रवाँ220 हो गए
हैं अज़ल221 से ज़मीं के कुरे222 पर असीर223
होके महदूद224 हम बेकराँ225 हो गए
ज़ौक़-ए-परवाज़226 भी दिल की इक जस्त227 है
ख़ाक से ज़ीनत228-ए-आसमाँ हो गए

अक़ल-ए-चालाक ने दी है आकर ख़बर
इक शबिस्तान229 है ऐवान-ए-महताब230 में
मुंतज़िर231 हैं निगारान232-ए-आतिश233-बदन
जगमगाती फ़िज़ाओं की मेहराब234 में
कितने दिलकश हसीं ख़्वाब बेदार235 हैं
माह236-ओ-मिर्रीख़237 की चश्म238-ए-बेख़्वाब में
खींच फिर ज़ुल्फ़-ए-माशूक़ा-ए-नीलगूँ239
ले ले शोले को फिर दस्त240-ए-बेताब में

मुज़दा241 हो मह-जबीनान242-ए-अफ़लाक243 को
बज़्म244-ए-गीती245 का साहब नज़र आ गया
तहनियत246 हुस्न247 को बेनिक़ाबी की दो
दीदावर248 आ गया, परदादर249 आ गया
आसमाँ से गिरा था जो कल टूटकर
वो सितारा बदोश-ए-क़मर 250 आ गया
लेके पैमाना251-ए-दर्द-ए-दिल हाथ में
मलके चेहरे पर ख़ून-ए-जिगर252 आ गया
बज़्म253-ए-सैयारगान254-ए-फ़लक255-सैर में
एक हुनरमंद256 सैयारागर257 आ गया

शौक़ की हद मगर चांद तक तो नहीं
है अभी रफ़ात258-ए-आसमाँ और भी
है सुरैया259 के पीछे सुरैया रवाँ260
कहकशाँ से परे कहकशाँ और भी
झाँकती हैं फ़िज़ाओं के पेचाक261 से
रंग और नूर की वादियाँ और भी
और भी मंज़िलें, और भी मुश्किलें
हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी

आज दस्त262-ए-जुनूँ पर है शमा263-ए-ख़िरद264
दो जहाँ जिसके शोले से मामूर265 हैं
लेके आएँ पयाम266-ए-तुलू267-ए-सहर268
जितने सूरज ख़लाओं269 में मस्तूर270 हैं
कह दो बर्क़271-ए-तजल्ली272 से हो जलवागर273
आज मूसा274 नहीं, हम सर-ए-तूर275 हैं